बच्चे का आगमन: कितना सुखद, कितना दुखद

आखिर क्या सोचते होगें वे लोग ? रूआंसे स्वर में कल्याणी ने मुझसे कहा। ’’जब से तृप्ति और टीसू हुये हैं, हम लोग केवल एक बार शशि और जस्सू के घ् ार जा सके हैं। इससे पहले रोज का मिलना-जुलना और घूमना होता था। इतने प्यार से वे हमें अपने हर प्रोग्राम में बुलाते है और एक हम हैं कि बस उस पार्टी के बाद जा नही पाये। ’’

’’हां। मुझे मालूम है भई, उस दिन की पार्टी में तुम टीसू को लेकर शाशि के बेड रूम में रहीं....... पार्टी खत्म होने में रात के बरह बज गये और तुम आधे से ज्यादा समय पार्टी से अलग रही ऐसे जाने से क्या फायदा ? कुछ दिन ठहर जाओ तब तक टीसू, तृप्ति जैसे बड़े हो जायेंगे या शाशि और जस्सू मां बाप बन जायेंगे तब ये खुद ही समझ जायेंगे, हमारी समस्याएं’’‘ मैंने जवाब दिया।

कल्याणी ठंडी सांस लेकर रह गई। इस तरह चलता रहा तो कब तक उनसे मित्रता बनी रहेगी ? टीसू उसे जान से भी प्यारा है लेकिन इधर कुछ दिनों से उसे लगने लगा है जैसे उसकी जिंदगी तृप्ति और टीसू के आस पास सिमटकर रह गई है। उसके खाने-पीने, नहाने, कपड़ा पहनने और रोने पर उन्हें मनाने तक सीमित होकर रह गई है, न कही आना, न जाना। आये जाये भी कहां ? पहले के मित्रों के साथ उनके प्रोग्रामों के साथ हमारा तालमेल ही नहीं बैठता। इनके सारे मित्र या तो बेचलर हैं, या नई-नई शादी हुई है उनकी। ऐसे में बच्चों को लेकर या छोड़कर उनके घर जाना उचित नहीं लगता लेकिन किया क्या जाये ? किसी न किसी से मिलने को जी चाहता ही है, कही जाने को जी चाहता है। जाओ भी तो वहां सब कुछ बदला-बदला लगने लगता है। मन हर समय बच्चों की ओर लगा रहता है। किसको क्या समझायें, सब तो बस यही कहकर हमारा मजाक उड़ाने लगते है कि ’’कल्याणी और आशु से आजकल बेबी फूट ओर टीका लगाने के समय के अलावा और कोई बात न करो। समझ में नहीं आता कि क्या करें ?

कल्याणी को केवल एक बात समझ में आई है। वह यह कि टीसू-तृप्ति के आगमन से केवल उसकी जीवन शैली ही नहीं स्वयं वह भी अंदर तक बदल चुकी है। लगभग हर नई मां की ऐसी ही प्रतिक्रिया होती है। क्योंकि इस समय स्त्री अपने आपको बहुत अकेला महसूस करने लगती है। यह अकेलापन दूर होता है रोज होते अपने नये नये अनुभवों के बारे में किसी से बात करके, और वह भी कोई ऐसा हो जो मुन्ने के पहली बार मां कहने की अहमियत को जानती हो, जो बच्चे का पहला दांत दिखने के पहले के रोमांच को समझ सके, उसके तेज बुखार की चिंता जिसने रातों रात जागकर बितायी, उसकी ये अपेक्षायें ही सामाजिक जीवन के आंनद की नई परिभाषा खोज लेती है, इस बीच बच्चे को कहीं कुछ हो गया तो ? बच्चे के दिनचर्या के साथ जुड़ी होती है उसकी भी दिनचर्या। और इसलिये जिंदगी के बदलाव को स्वीकार करके मित्रों से मिलना जुलना, रिश्तेदारों के घर आना जाना और पिक्चर जाना बदलती परिस्थितियों के अनुरूप बनने में ही कुशल है। अपने को खींच तानकर शिशु आगमन के पूर्व की स्थितियों में फिट करने का परिणाम केवल असंतोष और परेशानी ही हो सकती है। कहने का मतलब यह कतई नहीं है कि परिचितों, मित्रों और रिश्तेदारों से जान बुझकर नाता तोड़ लिये जाये। किन्तु हां, अपनी बदली हुई जिंदगी के लिये उनके समक्ष क्षमा प्रार्थी होना भी कतई जरूरी नहीं है। जो पुराने परिचित आपकी बदली परिस्थिति को स्वीकार नहीं कर पायेंगे वे स्वतः दूर हो जायेंगे, इसलिये नहीं कि वे अब आपको पंसद नहीं करते, बल्कि इसलिये कि अब उनकी और आपकी गतिविधियां, क्रियाकलाप अब अलग अलग है। मगर निश्चित रहिये, आपके कुछ साथी आपके पास आते रहेंगे।

इंसान की जरूरतों के साथ बदलता रहता है उसका जीवन। शिशु आगमन के बाद जो काम पहले बोर लगते थे, अब अच्छे लगने लगते हैं। इसी प्रकार जो लोग पहले आकर्षित नहीं करते थे, अब वे ही आपके करीब होने लगते है। बदलाव की यह सारी प्रकिया कभी कभी बड़े स्वाभविक ढंग से हो जाती है जैसे स्वयं कल्याणी ने महसूस किया था। जब जीवन और उमा हमारे करीब होते चले गये। पता न चला कल्याणी दो बच्चों की मां थी और उमा नई नवेली दुलहन, दोनों अपने में मस्त। उस समय अमित पैदा नहीं हुआ था, जीवन के आफिस जाते ही दोनों आपस में बैठकर बतियाते और तृप्ति टीसू की तोतली भाषा का मजा लेकर खुश होते। अमित के जन्म के बाद से कल्याणी, उमा की करीबी मित्र बन गई और आज स्थिति यह है कि छोटी मोटी बातों से लेकर घर और बाहर की बातों और चर्चाओं में दोनों एकदम साथ होते हैं।

’’एक नन्हीं सी जान के घर में आ जाने से कितना बदल जाता है सब कुछ। जिंदगी एकाएक बस उसी के इर्द गिर्द घूमने लगती है। सिनेमा, पार्टी, मित्रों से मिलना जुलना सारे प्रोग्राम उसी के प्रोग्राम के अनुसार बनाने पड़ते हैं। ऐसे में यदि कुछ पुराने मित्र हमें ’निरा बोर’ समझने लगें तो कोई आश्चर्य नहीं। बदलती जिंदगी अपने साथ नये परिचय नई अनुभूतियां तो लाती है। क्यों न सहर्ष उसका स्वागत करें ?’’

दो महिलाओं के परस्पर परिचय का मुख्य कारण यदि बच्चा ही हो तो अक्सर ऐसा होता है कि परिचय एक सीमा तक आगे बढ़ नहीं पाता। वही से जो मिलने का साधन था। परस्पर आत्मीयता के बीच एक दीवार भी बन जाती है। जब भी मिला तो औपचारिक बातें ही हो पाती है ’कहिये अमित कैसा है या टीसू मजे में तो है..... .. तृप्ति अब स्कूल जाने लगी होगी ?‘ आदि और इन बातों के आगे आत्मीयता की गाड़ी बढ़ ही नहीं पाती शायद इसलिये कि वयस्क होने पर हम बच्चों की तरह सरलता से मित्रता करने की कला भूल चूके होते हैं।

हां, अब आपका जीवन बदल गया है। आप पत्नी और गृहणी के साथ मम्मी की पदवी भी ग्रहण कर चुकी हैं। लेकिन जिंदगी को पूरी तरह जीने के लिये वक्त जरूरत काम आने के लिये आपको मित्रों, रिश्तेदारों और स्वजनों के साथ सौहार्द्रता बरतनी चाहिये, मित्रता की गाड़ी को स्वयं धक्का लगाइये। जब भी मिलिये तो जान बूझकर बच्चे की ही बात नहीं, स्वयं अपनी, अपने घर, गृहस्थी की बात करिये। वक्त पड़े तो सहायता मांगने में हिचकिचाइये मत और यदि वे सहायता मांगे तो बिना एहसान जताये उदार हृदय से उनकी सहायता कीजिये, एक बार संकोच व झिझक की दीवार टूट जायेगी तो आप पायेंगे कि वह अंतरंगता, वह आत्मीयता जो बच्चों के जरिये शुरू होती है, अपने में एक विशेष अपनत्व की मिठास लिये होती है और ऐसे अपनत्व में जो सहिष्णुता, उदारता और संवेदना पायी जाती है वह शायद ही किसी अन्य सामाजिक सम्बंध में होती हो........।

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