क्या आप बच्चों को कहानियां सुनाते हैं ?

उस दिन रात में अचानक एक मित्र के यहां जाना हुआ। वहां पहुंचा तो देखा कि उनके बच्चे स्वाति और टीसू रो रहे हैं और उनके पापा बच्चों को डांटने के बाद अपना गुस्सा उसकी मम्मी पर उतार रहे थे कि बच्चों को तुमने बिगाड़ दिया है...जब भी आफिस से आता हूं बच्चे सर में सवार हो जाते हैं और कहानी सुनाने के लिये जिद करते हैं। ‘भला मैं कहानी कहां से सुनाउंगा, मुझे कहानी-वहानी नहीं आती।’ इसके विपरीत मेरे एक दूसरे मित्र के बच्चे स्वस्थ और चंचल है। उनके बच्चे जिद नहीं करते। उससे बातों के दौरान पता चला कि- ‘बच्चे जिज्ञासु होते हैं। जैसे जैसे वे बढ़ते हैं उनमें किसी को जानने व समझने की इच्छा होती है। अगर आप उनकी जिज्ञासा को संतुष्ट कर देंगे तो बच्चे मानसिक रूप से स्वस्थ होते जाते हैं अन्यथा वे अपनी भावनाओं को दबाने लगते है जो उनके बड़े होने पर एक विकृति के रूप में दिखाई देने लगता है।’ प्रश्न उठता है आखिर ऐसा क्यों होता है ? मेरे उस मित्र की बात मुझे बार बार कचोटती है। उनका कहना है कि-मशीन युग में जीने के कारण हम भी मशीन बन गये हंै। यहां तक कि हम चाहते हैं कि हम बटन दबाये और हमारे बच्चे स्वस्थ और चंचल हो जायें, उस समय हम यह भूल जाते हैं कि किसी बच्चे को उस स्तर का बनाने में समय लगता है मेहनत करनी पड़ती है। आज कितने लोग इस बात को समझते हंै ?’

विश्लेषण करने से पता चलता है कि बच्चों की जिज्ञासा को शांत करने के लिये अधिकतर महिलाएं या तो बहाने बनाकर उसे टाल जाती है या फिर कल्पनालोक की परियों की कहानी सुनाती हैं जिससे वे संतुष्ट होने के बजाय उनकी जिज्ञासा बढ़ने लगती है। घरों में अक्सर दादा-दादी बच्चों को कहानियां सुनाते हैं। इन कहानियों में किसी जंगली जानवरों की या चोरों की या परियों की कहानियां होती है। बच्चों के अपरिपक्व मन इन कहानियों में जैसे तैरने लगता है, बढ़ती उम्र के साथ ये बच्चे अपने जीवन में इन परियों को देखने को उत्सुक रहते है। मगर क्या वे इनमें सफल हो पाते हैं ?

बहुत पुराने समय से यह परिपाटी चली आ रही है कि बच्चों को हर बात इस तरह से बताई जाये जिससे वे उसे आसानी से समझ सके और आपके समझाने का तरीका दिलचस्प हो। बच्चे को जिन चीजों में दिलचस्पी नहीं होती, वे उन्हें याद रखने की कोशिश नहीं करते। इसके विपरीत जिन चीजों में उनकी दिलचस्पी होती है, वह उनके मन-मस्तिस्क में बैठ जाती है। इसलिये अक्सर माताएं मामूली विषय को भी बढ़ा चढ़ा कर, परियों के किस्से कहानियों का पुट देकर उसे दिलचस्प बनाने का प्रयास करती हैं। बच्चे अपनी मां द्वारा बताई गई किसी भी बात पर संदेह नहीं करते अतः fस्त्रयों का बढ़ा चढ़ाकर कहना आदत बन जाती है। बच्चों में अवास्तविक चीजों को वास्तविक समझने की प्रवृत्ति होती है fकंतु बाल मनोवैज्ञानिक इस प्रवृत्ति से उत्पन्न होने वाले खतरों को महसूस करने लगे हैं। एक समय ऐसा भी आता है, जब बच्चा मां द्वारा बताई गई बातों में छिपे झूठ को समझ जाता है। क्या आप जानते है कि किसी उत्साह जनक और आश्चर्यजनक घटना के झूठ होने का पता चलने पर वह क्या सोचेगा..? छोटे होने के कारण बच्चा यह नहीं सोचेगा कि आपने बातों को दिलचस्प बनाने के लिये बढ़ा-चढ़ाकर कहा है बल्कि वह सोचेगा कि आपने उसे सच बात नहीं बताई, इससे वह दुखी होगा।

एक बार चार वर्षीया तृप्ति अपनी मम्मी-दादी के साथ बगीचे में टहल रही थी। अंधेरी झाड़ियों में जगमगाते जुगनुओं को देखकर उसने अपनी मम्मी से पूछा- ‘मम्मी ये चमकदार चीजें क्या हैं ?’ ... ये नन्ही नन्ही लालटेन उठाये लाल परियां हंै जो रात में तुम्हारी रक्षा करने आती है। रात भर तुम्हारे बिस्तर के पास पहरा देती है और सुबह चली जाती है।’ मम्मी ने दिलचस्प बनाते हुये कहा। तृप्ति जिज्ञासा से भर उठी। वह पूछने लगी-’क्या ये परियां रोज आती हंै ?’ हां ! मम्मी ने कहा।

उस रात तृप्ति बहुत सोयी मगर दूसरे दिन शाम को बगीचे में उसकी मम्मी ने उसे रोते पाया। पूछने पर वह कहने लगी-’मम्मी मैं लाल परी को पकड़ना चाहती थी। पकड़ने के लिये झाड़ियों के पास गई और एक को पकड़ भी लिया, मगर यह तो गंदी मक्खी है.....।’ और वह सुबक सुबक कर रोने लगी। बहुत समझाने के बाद भी वह अपनी मम्मी की बातों पर विश्वास नहीं कर पायी। यहां यह बात सोचने योग्य है कि क्या तृप्ति की मम्मी सही बात नहीं बता सकती थी ?

बच्चों की चंचल प्रवृत्ति कभी-कभी मां को परेशान कर देती है। दिन भर की थकान से चूर वह रात्रि में विश्राम करना चाहती है, मगर बच्चे हैं कि खेलने में मस्त, और बिना बच्चों को सुलाये वह सोये भी कैसे......? यही समस्या कला के यहां की है। अंसु, दादू और प्रिया देर रात तक खेलते रहते हंै। तब उसकी मम्मी बच्चों को काल्पनिक हौवा का भय दिखाकर सुलाती है। बच्चे भी डर के कारण जल्दी सो जाते हैं मगर यहीं पर हम भूल कर बैठते हैं। हमारी इस छोटी सी भूल के कारण बच्चे अनजाने में उस काल्पनिक हौवा का शिकार हो जाते हैं जो उन्हें बाद में अंदर ही अंदर खाये जाती है।

यहां एक बात स्पष्ट करना जरूरी है। जब कहा जाता है कि अपने बच्चों से सच बोलिये तो इसका यह मतलब नहीं है कि आप बच्चों से बड़ों की तरह बात करें। उन्हें दिलचस्प और कल्पनाशील कहानी बेशक सुनायें, पर वे महज कहानियां ही तो हैं। इसलिये उनके जीवन के दैनिक क्रियाकलाप से उसे मत जोड़िये। ध्यान रखिये कि वह अपने दैनिक व्यवहार को सपनों के संसार से न जोड़ने पाये, वरना बाद में उसका बुरा परिणाम होता है। विचित्रता भरी कहानियों से कई-बार बच्चों की जिज्ञासा बढ़ती है। उसके इस कल्पित संसार को छिन्न-भिन्न मत कीजिये और कल्पना के इस संसार को उसके दैनिक जीवन से मत जोड़िये। कहानियों की कल्पनाशीलता को बचपन के मधुर क्षणों के रूप में उन्हें सहेजने दीजिये। फिर वह धीरे-धीरे बिना किसी कपट के इनसे मुक्त हो जायेगा ओर आयु के साथ अपने चारों ओर के भौतिक संसार को समझने लगेगा।



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