बच्चों को अच्छी आदतें सिखायें

पिछले दिनों जब मैं काॅलेज से लौटा तो देखता क्या हूं कि तृप्ति और टीसू अपनी मम्मी को रोटी बनाते देख कर रसोईघर में घुसकर आटे की लोई बनाकर उलटे-सीधे बेल कर सेकने के लिए तंग कर रहे थे और उनकी मम्मी काम में बाधा पड़ने के कारण झुंझला कर उन्हें डांट रही थी। बच्चों की रसोई-कार्य के प्रति उत्सुकता और मम्मी की झुंझलाहट ने मेरी सारी थकान दूर कर दी और मैं अपने दैनिक कार्य में उलझ गया। जब खाना निकालने के लिए मैंने कल्याणी को बोला तब तृप्ति दरी बिछाने लगी- इस दरी में पापा बैंठेंगे, इस दरी में टीसू भाई बैठेगा, इस दरी में मैं बैठूंगी और वह थाली-गिलास जमाने लगी, मुझे उसके कार्यो में रस आने लगा। मैने पूछा-’’...और मम्मी कहां बैठेगी बेटा?’’

‘‘मम्मी मुझे डांटती है और रोटी नही बनाने देती, इसलिए उसके लिए दरी नहीं बिछायी,’’ तृप्ति बोली।

मैंने समझाया, ‘‘नहीं बेटा, मम्मी तुम्हें खूब प्यार करती है, खाना बनाते समय उसे तंग मत किया करो।’’

‘‘आप कहते हंै तब ठीक है, मम्मी के लिए भी दरी बिछा देती हंू।’’ तृप्ति बोली, ‘’..और पापा कल सबके सब पिकनिक जायेंगे, जल्दी से खाना खा लो, मुझे बहुत काम करना है- जाने की तैयारी करनी है, मम्मी को कल के सामानों की लिस्ट देनी है, गुडिया को सुलाना है.... बहुत से काम है पापा......’’

उनकी उत्सुकता भरे क्रियाकलाप मुझे डायरी लिखने की प्रेरणा देता रहा है। इस घटना को भी मैंने अपनी डायरी में समेट लिया।

वास्तव में बच्चों को स्वावलंबी एवं आत्मनिर्भर बनाने में बचपन में डाली गयी अच्छी आदतें महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, बच्चों को उनकी रूचि एवं क्षमता के अनुरूप कार्य में लगाना बहुत जरूरी है। बच्चे जैसे-तैसे बड़े होते जाते हंै, वैसे-वैसे उनमें संस्कारों की प्रबलता जड़ होती जाती है। आपने जो उसे बचपन में सिखा दिया, जो दिशा दी, उसमें बेहिचक वह बढ़ता चला जाता है। बड़ा होने के बाद आप कहें कि मेरा बेटा/बेटी तो घर का काम करते ही नहीं, कछ कहो तो नाक भौं सिकोड़ते हैं, तो बिल्कुल गलत है। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो सामान्यतया हर संस्कार आपका ही दिया हुआ होता है।

हर घर में कुछ-न-कुछ पेड़-पौधे लगे होते हंै। बच्चे पानी से खेलने में भरपूर आनंद लेते हंै। आप उन्हंे इनमें पानी डालने के लिए कहें। वे बेहद रूचि से पानी डालने लगेंगे, आपका काम भी हो जाएगा और बच्चों का खेल भी। अपने बच्चों को आटे की लोइयां बना कर बेलने दीजिए। उनके सामने ही उन छोटे-छोटे बिगड़े नमूनों को सेंकिये और चाव से खाइए, तब आप महसूस करेंगी कि इससे आपके बच्चे कितने खुश होते हैं। उनके उत्साह में कितनी बढ़ोतरी होती है। यदि बर्तन उनकी पहुंच में हांे, तो उनसे गिलास-कटोरी जमाने के लिए कहिए, बीच-बीच में उनकी तारीफ करें। शुरू में कुछ काम तो बिगड़ेगा ही पर धीरे-धीरे उसमें सुधार आ जायेगा और कुछ दिनों बाद वे इस कार्य को बखूबी करने लगेंगे।

अकसर देखा जाता है कि जब आप किसी के घर मेहमान होते हैं या किसी के घर मिलने के लिए जाते हंै तो वहां आपके बच्चे तंग करते हंै। कुछ देर तो आप उन्हें पुचकारेंगे फिर बिना आगा-पीछा सोचे बच्चों के गाल पर चांटा रसीद कर देंगे। इससे बच्चों का मन कंुठित होने लगता है। बाद में ऐसे उत्पात वह किसी के आने पर अकसर करने लगते हंै और उनके कार्य से आप अपमानित महसूस करने लगते हैं। लेकिन आपने कभी सोचा कि बच्चे भी अपने को अपमानित महसूस करते हैं ?

घर के कामों में बच्चों को साथ लीजिए। उन्हें जूते-चप्पलों को ढंग से जमाना सिखाएं, मेहमानों को नाश्ते के बाद सौंफ-सुपारी देने दीजिए, उन्हें अपनी किताब, कपड़े आदि सहेज कर रखने को कहें। यदि आपके लाॅन से आपके बच्चे फूल तोड़ कर फेंके तो उन्हें समझाएं और यह जिम्मेदारी उन पर डाल दें कि कोई यहां से फूल तोड़ कर न ले जाये। घर के फर्नीचर को साफ करने दीजिए, ऐसा करने से बच्चों में आत्मनिर्भरता आती है। कुछ करने का आत्मविश्वास पैदा होता है। उनमें पढ़ाई के साथ-साथ काम करने की आदत पड़ेगी। अकसर घर में कहते सुना जाता है कि ‘अरे अभी तो वह पढ़ रहा है, काम कैसे करेगा.. ? लेकिन शायद वे भूल जाते हैं कि बाद में मजबूत हुई शाखा झुक नहीं सकती। बचपन में दूसरों पर आश्रित सदा आश्रित ही रहते हैं, अपने काम के लिए दूसरों पर।

सबसे पहले बच्चों के अंतरमन में यह निश्ंिचतता होनी चाहिए कि माता-पिता उन्हें भरपूर प्यार करते हंै। माता-पिता को बच्चों के स्वतंत्र विचार, कल्पना और परामर्श का सम्मान करना चाहिए। बच्चों की विषम परिस्थितियों एवं दुविधाओं में सहायता कर उनकी परेशानियां दूर करनी चाहिए। बच्चों को स्वच्छंद वातावरण में अन्य बच्चों के साथ खेलने दें ताकि वे दूसरों के अनुकूल आचरण बना सकें। उनका अनुशासित होना आवश्यक है। किन्तु इसे क्रियान्वित करने के लिए माता-पिता को मैत्री पूर्वक व्यवहार करना चाहिए। यथासमय बच्चों की प्रशंसा करके उन्हें उत्साहित करना चाहिए।

अनेक सावधानी बरतने पर भी बच्चों में कुछ दोष आ ही जाते हंै। तो उनके कारणों को खोज कर सहानुभूतिपूर्वक सुलझाने की कोशिश करनी चाहिए। डांट-फटकार से बच्चों की बुराई चाहे कुछ क्षण के लिए भले दब जाये परंतु उसका पूरा इलाज नहीं हो पाता और यही कारण है कि बड़े हो कर यह सब बढ़ जाता है। बच्चे स्वयं खुली किताब हंै, आप उनमें दिलचस्पीं लें, उनकी उलझनों को सहानुभूतिपूर्वक सुने और धीरे-धीरे उनकी भावनाओं का विकास करते जायें तभी आपके बच्चों की प्रतिभा उभर कर आयेगी और आप भी सिर ऊंचा कर जी सकेंगे।




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