बच्चों की परीक्षा और मम्मी की परेशानी

पिछले दिनों मैं सविता के घर गया। शाम को घूमने और मूड़ फ्रेश करने का समय होता है। इस समय सविता और उनके बच्चों को कमरे में देखकर मुझे बेहद आश्चर्य हुआ। आज भी उस दिन का दृश्य मुझे याद है-बच्चे कमरे में पुस्तक लिये पढ़ने का अभिनय कर रहे थे और सविता बाहर बरामदे में बैठी थी, जैसे चौकीदारी कर रही हो। मुझे यह सब देखकर बड़ा विचित्र लगा था। उस दिन बातें औपचारिक ही हो पायी। मुझे ज्यादा जोर से बोलने पर मना करती हुई कहने लगी ‘जरा धीरे बोलिये, बच्चे पढ़ रहे हंै। अगले महीने से उन लोगों की परीक्षा शुरू होने वाली है।’ मैंने कहा-’अभी तो शाम के पांच बजे हंै थोड़ा खेलने भी दो।’ ‘...न बाबा न, खेलने की बात अभी रहने दो। साल भर खेलते ही रहेंगे तो पढ़ेगे क्या ? यही दो माह तो पढ़ाई के लिये अनुकूल होते हंै। मेरा रीतेश तो इस बार स्कूल में टाॅप करेगा। पिछले वर्ष पांच नम्बर कम होने से क्लास में दूसरा आ गया था। रीतू भी इस बार अच्चे अंक से पास होगी तो उसे मेडिकल काॅलेज में दाखिला करवाने की सोचूंगी’, उनका जवाब था।

मैंने फिर पूछा- ‘बड़ा व्यस्त कार्यक्रम है तुम्हारा, तो क्या सीमा की शादी में नहीं जाओगी, सभी सहेलियां आयेंगी।’
‘क्या करूं, इन बच्चों के कारण मैं कहीं जा नहीं पाती। थोड़ा इधर से उधर हुई नहीं कि बस पढ़ाई छोड़कर इनकी मस्ती शुरू। रीतू इस बार हाॅयर सेकेण्डरी की बोर्ड परीक्षा देगी। मैं तो सीमा की शादी में नहीं जा सकूंगी। आप तां समझ ही रहे हंै मेरी परेशानी, इन बच्चों के कारण.......।’ मैंने बीच में ही टोका-रहने भी दे सविता, सीमा की शादी को तो अभी समय है, तब की बात तब देखी जायेगी, और मैं वापस चला आया।

उस दिन की घटना ने मुझे बहुत प्रभावित किया और लेखन विद्या से जुड़े रहने के कारण इस विषय पर मुझे fचंतन आवश्यक प्रतीत हुआ, क्योंकि यह समस्या आज हर घर में स्पष्ट देखने को मिलती है। जनवरी माह की शुरूआत और घर में बच्चों की हरकतों पर पापा-मम्मी की डांट से बचने के लिये रोज शाम को पांच से आठ तथा प्रातः चार से छः बजे तक मन मसोसकर पुस्तक लेकर पढ़ने को बैठना पड़ता है। बच्चों के इस समय निर्धारण के बारे में मेरी एक दूसरी परिचिता अनिता कहती है-’कि शाम पांच से आठ और सुबह चार से छः का समय इसलिये मैंने निर्धारित किया है, क्योंकि रात आठ बजे के बाद बच्चे ऊंघने लगते हंै और जल्दी खाना दिये तो सो जाते हंै। वैसे, सुबह चार बजे पढ़ने से जल्दी याद होता है, फिर छः बजे के बाद मैं घर के दूसरे कार्यो में व्यस्त हो जाती हूं।’ बहरहाल, बच्चों के साथ-साथ मम्मी की भी दिनचर्या बदल जाती है। कहीं आना-जाना नहीं, पिक्चर देखना बंद, बच्चों के ऊपर सारा दिन निगरानी में ही निकल जाता है, कोई मिलने आये तो औपचारिक बातें करना, ज्यादा जोर से बातें करने से मना करना आदि। मुझे तो ऐसा लगता है कि जैसे पापा-मम्मी उनके परीक्षा फल को अपना प्रेस्टिज ईशु बना लेते हैं। फलां के बच्चे हमेशा मेरिट में आते हंै, उनके पापा-मम्मी उनका कितना ध्यान रखते हंै, आदि बातें सोचकर लोग ऐसा करते हैं। ये बातें किसी टीचर के घर ज्यादा देखने को मिलती है। मेरी एक दीदी बताती है कि ‘अगर ये बच्चे फेल हो जाये या नम्बर कम लाये तो हम कहीं-मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहेंगे। लोग क्या सोचेंगे कि ‘इनके पापा काॅलेज में प्रोफेसर हैं और इनके बच्चे को तो देखो। बस, यही सोचकर ऐसा करना पड़ता है।’

लोग बच्चों को लेकर इस कदर परेशान होते हैं, जैसे बच्चे उनके लिये समस्या हो। उनके एडमिशन से लेकर रिजल्ट तक, मुझे अच्छी तरह से याद है, जब प्रियंका तीन साल की थी। श्रद्धा उसे रोज पढ़ाती थी। प्रियंका भी जल्दी से उसे याद कर लेती थी और बार-बार उसे दुहराती। बड़ा अच्छा लगता था तब। उसकी इस उत्कंठा को देखकर कालोनी के सभी लोग उसकी तारीफ करते और किसी स्कूल में भर्ती करने की सलाह देते थे। प्रियंका भी कालोनी के बच्चों को रिक्शे में स्कूल जाते देख मचल जाती थी। लोगों के कहने पर श्रद्धा ने प्रियंका की उम्र चार वर्ष बताकर उसे बाल मंदिर में के.जी.वन मे दाखिल करा दिया। फिर क्या था-प्रियंका के लिये तीन जोड़ी ड्रेस, पुस्तक-कापी, टिफिन आदि की खरीददारी की गई। स्कूल जाने के लिये रिक्शा की व्यवस्था की गई। उस दिन कितनी खुश थी श्रद्धा। कहती थी-’देखना प्रियंका अब स्कूल में अव्वल आयेगी। मैं तो उसे पूरा समय दे नहीं पा रही थी। अब स्कूल में ज्यादा कुछ सिखेगी और हुआ भी यही, शुरू के दो-तीन माह अच्छे गुजरे। प्रियंका स्कूल में आती, नाश्ता करती और कालोनी के बच्चों के साथ खेलने चली जाती। वहां से आती और होमवर्क पूरा करती। हम उसको होमवर्क पूरा करने में हेल्प करते, मगर धीरे-धीरे व्यस्तता बढ़ती गई और प्रियंको को श्रद्धा ज्यादा समय नहीं दे पाती । जिससे उसका होमवर्क पूरा नहीं होता और रोज स्कूल में उसे डांट पड़ती। आश्चर्य तो तब हुआ, जब हमने उसकी तिमाही रिपोर्ट देखी। प्रियंका बड़ी मुश्किल से पास हुई थी। श्रद्धा दौड़े-दौड़े बाल मंदिर के प्राचार्य और उसकी क्लास टीचर से मिली और वस्तुस्थिति पर चर्चा की।उन्हें यह जानकर बेहद आश्चर्य हुआ कि प्रियंका आजकल स्कूल में पढ़ती कम है और सामने बन रहे मकान में रेत के ढ़ेर में खेलती ज्यादा है।

‘तो उसके लिये हमें क्या करना चाहिए’-उसने प्राचार्य से पूछा। उनका उत्तर था-’आप उन्हें पूरा समय दीजिए। प्रतिदिन होमवर्क पूरा करायें और मारने-डांटने के बजाय समझायें और फिर कोई ट्यूटर रखें, जो उपरोक्त कार्य अच्छे ढंग से कर सकें।’

बहरहाल, प्रियंका की घटना ने मुझे इस विषय पर नये सिरे से सोचने को मजबूर कर दिया। विश्लेषण करने से पता चलता है कि अस्सी प्रतिशत पढ़ी-लिखी महिलाएं अपने बच्चों को छोटी उम्र में ही स्कूल में भेजना शुरू कर देती हंै और अधिकांश परिवारों में बच्चों की उम्र बढ़ाकर (अगर चार वर्ष से कम है तो) दाखिला करा दिया जाता है। दस प्रतिशत परिवारों में, खासकर ग्रामीण परिवारों में आज भी पांच वर्ष या उससे अधिक उम्र होने पर ही बच्चों को स्कूल भेजा जाता है। दस प्रतिशत माता-पिता ही ऐसे होते हैं, जो बच्चे को स्कूल भेजने के पहले सभी बातों पर गंभीरतापूर्वक विचार करते हंै। ऐसे माता-पिता का कथन है कि बच्चों को कम से कम चार वर्ष की अवस्था में ही स्कूल भेजना चाहिए। इससे अधिक होने में कोई हर्ज नहीं हैं, लेकिन कम नहीं होना चाहिए। चार-पांच वर्ष की अवस्था में बच्चे पढ़ने की मानसिकता बना लेते है। कम उम्र होने पर पुस्तकों का वजन सम्हाल नहीं पाते, और तब उनसे अच्छी पढ़ाई की अपेक्षा कैसे की जा सकती है।

यह बात भी सोचने योग्य है कि बच्चों को हम कितना अनुकूल वातावरण दे पाते हैं। वातावरण का बच्चों के स्वास्थय, मानसिक स्थिति और पढ़ाई पर बुरा प्रभाव पड़ता है, अतः इस पर बच्चों को जितना पढ़ने की आवश्यकता है, उससे कहीं ज्यादा खेलने और भरपूर नींद लेने की है। मगर भय में पहले बच्चे क्या ऐसा कर पाते है ? एक सर्वेक्षण के दौरान पता चला है कि ऐसे बच्चे कुठित मनः स्थिति वाले होते हैं और बड़े होने पर अपने कार्यो का चुनाव उससे सम्बंधित निर्णय लेने की क्षमता उनमें नहीं होती। ऐसे बच्चे हमेशा मां-बाप के ऊपर निर्भर रहते हैं, अतः मां बाप को चाहिये कि वे बच्चों के साथ नरमी से पेश आये। उन्हें हर बात को जबरदस्ती मनवाने के बजाय समझाकर उन्हें करने को कहें, जिससे उनमें स्वयं निर्णय लेने की क्षमता का विकास हो सके। परीक्षा के दिनों में सामान्य ढंग से पढ़ने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देना चाहिए। ऐसा करने से बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास स्वास्थय रूप से होता है और वे उत्तरोत्तर विकास की दिशा में बढ़ने में समर्थ होते हैं।



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