बच्चे तो आपसे ही सीखते हैं


बच्चों का नन्हा सा मस्तिष्क अनेक प्रश्नों से भरा होता है। उनका प्रश्न करना, उनका जिज्ञासु होना, उनके मस्तिष्क के विकास की पहली सीढ़ी है। ऐसे बच्चे जिनमें किसी वस्तु को जानने की इच्छा नहीं होती, कोई भी कार्य उन्हें आकर्षित नहीं करता ऐसे बच्चे सामान्य स्तर के होते है।

बच्चा अपने जन्म के साथ कुछ पैतृक संपत्तियां ले कर आता है। जिस प्रकार बच्चे अपने माता-पिता का चेहरा पाते हैं, उसी प्रकार उनके गुण-दोष भी उन्हे मिलते हैं। मूल प्रवृत्तियों के अतिरिक्त कुछ प्रवृत्तियां और सहज क्रियाएं उन्हें आयु वृद्धि के साथ-साथ आस-पास के वातावरण से प्राप्त होती है। उन सबके मिले-जुले रूप से उनका व्यक्तित्व बनता है। उचित शिक्षा द्वारा उनकी प्रवृत्तियों तथा विचारों को सुंन्दर सांचे में ढाला जा सकता है और अच्छी शिक्षा अच्छे वातावरण से ही प्राप्त होती है। बचपन को खेलने-कूदने के दिन कह कर माता-पिता द्वारा इन बातों की उपेक्षा कर दी जाती है। लेकिन यही बचपन मनुष्य के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण समय होता है। अतः इस पर ध्यान दिया जाना बहुत जरूरी होता है।

        विद्वानों का कथन है कि बौद्धिक योग्यता वंश परंपरा की देन है। वंश परंपरा से ही वे कुशाग्र अथवा मंद बुद्धि के होते हैं। इनमें वातावरण और शिक्षा द्वारा विशेष परिवर्तन नहीं लाया  सकता। फिर भी उचित शिक्षा और वातावरण से बच्चों के बौद्धिक स्तर एवं मानसिक विकास में सहयोग तो मिलता ही है। उनकी जिज्ञासु प्रवृत्तियों को संतुष्ट कर उनमें बौद्धिक चेतना भरी जा सकती है। इसके लिये माता-पिता को सबसे पहले धैर्यवान तथा सजग होना चाहिए। आयु के साथ बच्चों में जिज्ञासा बढ़ती ही जाती है। वे हर वस्तु को कौतूहल से देखते हंै। हर कार्य उन्हंे आश्चर्यजनक ढंग से होता दिखाता है। बच्चों का नन्हा सा मस्तिष्क अनेक प्रश्नों से भरा होता है। उनका प्रश्न करना, उनका जिज्ञासु होना, उनके मस्तिष्क के विकास की पहली सीढ़ी होती है। ऐसे बच्चे, जिनमें किसी वस्तु को जानने की इच्छा नहीं होती, कोई भी कार्य उन्हें आकर्षित नहीं करता। ऐसे बच्चे सामान्य स्तर के होते हैैं।

        बहुत छोटे बच्चे जो बोल नही पाते, अपनी भावनाओं को विशेष आवाज निकाल कर प्रकट करते हैं। किसी वस्तु की आवाज उनके मस्तिष्क को सचेत करती है। अपने माता-पिता की आवाज को सुनकर बच्चा हंसता है और अपनी खुशी प्रकट करता है। उनमें किसी वस्तु अथवा जीव जन्तुओं को छूकर देखने की लालसा होती है। इसमें उन्हें भय नहीं लगता। इससे उनकी भावनाए व्यक्त होती है। बढ़ते हुए बच्चों के लिए तो प्रकृति का द्वार खुल जाता है। घर की परिधि उसे टेढ़ीमेढ़ी दिखाई देती है। रोज दिखाई देने वाली चीजें उन्हें आश्चर्यजनक दिखाई देती है। सभी जनतुओं का हाव भाव उन्हंे आनंदित करता है। आकाश की ओर देखकर वे अपनी उंगली उठाते हैं। ऐसा करके वे जानना चाहते हंै कि ये चांद सितारे क्या हंै ? बादल कैसे बनता है ? उनके  हाव-भाव में बहुत सी बातों को जान लेने की ललक होती है। बच्चों के प्रश्नों का उत्तर उन्हें इस रूप में दिया जाना चाहिए जिससे उनकी जिज्ञासा की संतुष्टि हो सके।

        अक्सर देखा जाता है कि लोग अपने बच्चों के प्रश्नों को टाल देते हंै, यह कहकर कि तुम अभी बच्चे हो इन बातों को क्या समझोगे, जाओ, जा कर खेलो....बच्चों के ऊपर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। बच्चे इन बातों से अपने बाल मन को कोसने लगते हैं। माता-पिता द्वारा अनजाने में की गयी भूल का प्रायश्चित इन मासूम बच्चों को करना पड़ता है। कभी-कभी इस छोटी सी भूल के लिए उन्हें बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। मनोवैज्ञानिक माता-पिता को ऐसी बातें नहीं करने की सलाह देते हंै। अपराध संस्थानों से मिली रिपोर्ट के आधार पर कहा जा सकता है कि अधिकांश अपराधी अपने बचपन की किसी--किसी घटना से क्षुब्ध होकर अथवा किसी कुंठा से प्रेरित होकर अपराधिक कार्य करते हैं और बाद में ऐसा करना उनकी मजबूरी बन जाती है। कुछ बच्चे अपनी जिज्ञासु प्रवृत्ति के कारण कुछ--कुछ प्रश्न पूछते ही रहते हैं। उनके प्रश्न होते हंै- यह क्या है ? ऐसा क्यों होता है ? ऐसा क्यों नहीं होता ? अगर इन प्रश्नों का संदर्भित उत्तर उन्हें मिल जाये, तो उन्हें और अधिक सोचने का मौका मिलता है। वह अपना समय आलतू-फालतू कामों में लगाकर fचंतन मनन में लगाने लगता है। माता-पिता को ऐसे बच्चों को प्रोत्साहित करना चाहिए और ऐसे कार्यो में धैर्य तथा शांति से काम लेना चाहिए मगर होता इसके विपरीत है। मां-बांप झिड़की देकर अथवा डांट-डपटकर बच्चों की भावनाओं का दमन करते हंै। एसे बच्चे कुंठाग्रस्त हो जाते हंै। जबकि बच्चों की बुद्धि इतनी विकसित हो चुकी होती है कि वे अपने प्रश्नों को बखूबी समझते हैं। बच्चों के प्रश्नों का उत्तर उनकी आयु, समझ और ग्रहण शक्ति को ध्यान में रखकर दिया जाना चाहिए। प्रायः देखा जाता है कि मां-बाप अपने बच्चों की जिम्मेदारियों से विमुख होकर उन्हें दादा-दादियों के पास पलने के लिए भेज देते हंै, जहां उन्हंे काल्पनिक कहानियों के अलावा कुछ नहीं मिलता।

        बच्चे अपने माता-पिता की आदतों को ग्रहण करते हंै। कुछ चीजें वे वातावरण से भी ग्रहण करते हंै। अतः माता-पिता को अपनी आदत सोच समझकर बनानी चाहिए। इसके लिए हो सकता है कि उन्हंे अपना मन मारकर कुछ आदते छोड़नी पड़ेे, मगर इससे सबका आने वाला कल सुखद हो सकता है।

        सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार करने तथा प्रशंसा का उपहार पाकर बच्चों का आत्मविश्वास बढ़ता है, जो उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है। बच्चों को आत्मविश्वास के प्रदर्शन का अवसर अवश्य मिलना चाहिए ताकि उनकी स्वस्थ भावनाओं का पूर्ण विकास हो सके। एक बात हमेशा याद रखें कि सभी बच्चों का मानसिक स्तर समान नहीं होता, इसके बावजूद उनमें किसी प्रकार का भेदभाव कर उन्हें उन्नति के समान अवसर देना चाहिए। इस बात की हमेशा कोशिश होनी चाहिए कि बच्चों में निराशा एवं असफल भावनाएं आने ही पाये, इसके लिए उनकी कमजोरियों और असफलताओं को भुला कर उनके अच्छे गुणों के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।       

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