बच्चे आखिर बिगड़ते क्यों हैं


        पिछले दिनों मैने अपने पड़ोस में रह रहे एक दम्पत्ति को देखा कि वे हर छोटी-मोटी बात पर अपने दोनों बच्चों को इतना मारते हंै कि देखने वालों का पसीना छूट जाये। जब वे शुरू शुरू में यहां आये थे तब अपने बच्चों को मारने के साथ साथ रस्सी से से घंटों बांधे रखते थे। तबसे आज तक ये बच्चें उदंड हो गये हंै कि किसी दूसरे बच्चे को मारना, किसी का सामन उठा लेना किसी के ऊपर थूक देना या पेशाब कर देना आम बात हो गयी है। अब उनके ऊपर तुम्हारे पापा-मम्मी को बताऊंगा या उनसे डांट खिलाऊंगाकहने का भी कोई असर नहीं होता। कभी-कभी वे कहते हंै कि मम्मी-पापा तो वैसे भी डांटते मारते हंै, थोडा ज्यादा मार लेंगे? मुझे उनकी हरकतों और सोच ने सोचने पर मजबूर कर दिया है कि बच्चे आखिर बिगड़ते क्यों है ?’ अनके बिगड़ने के लिये कहीं हम ही तो जिम्मेदार नही हैं        

        एक बच्चे को दंड देने का तात्पर्य है कि उसके पालक अपने बच्चों को समझने में असमर्थ हैं। दंड बच्चों को सुधारने की अपेक्षा सदैव उनमें भय असुरक्षा की भावना ही पैदा करता है। यह एक मनोवैज्ञानिक के विचार है। वास्तव में प्रत्येक बच्चा कुछ मूल प्रवृत्तियां और एक निश्चित शारीरिक संरचना लेकर पैदा होता है। जन्म के समय बच्चों की विकास क्षमताओं में काफी अंतर होता है परंतु चारों ओर का पर्यावरण काफी हद तक उस बच्चे के ऊपर अपना प्रभाव डालता है। बचपन की बुनियाद में अगर सच्चरित्रता, कर्मठता और साहस जैसे गुणों का समावेश कर दिया जाये तो fनःसंदेह बच्चे के सुखमय भविष्य की कल्पना की जा सकती है।

        हर बच्चे में किसी किसी रूप में बालहठ पाया जाता है। किसी वस्तु को लेने का आग्रह हो या किसी वस्तु से खेलने का, कुछ खाने का या कहीं जाने का...बच्चे उसे पूरा करने की हट करने लगते हैं। और शायद बहुत से मां-बाप बच्चों की जिद के कारण कुछ काम को चाहते हुये भी करते हंै। ऐसे मां-बाप अपनी समझ से कुछ ऐसा नहीं करना चाहते जो उन्हें परेशान करें, भले ही वह बच्चों के लिये उपयुक्त हो। ऐसा अक्सर देखने में आता है कि ज्यों-ज्यों बच्चों की समझ जाती है त्यों-त्यों यह समस्या एक सीमा तक बढ़ती ही जाती है। वास्तव में बाल तर्क शक्ति का सदैव एक पहलू दृढ़ रहता है। साथ ही बच्चों को आपकी समझ, सामाथ्यZ या उसकी मांग की उपयोगिता या अनुपयोगिता का ज्ञान नहीं होता। एक घटना पर गौर करें। आप और आपके बच्चे बाजार गये हंै। रास्ते में चलते चलते उसने आपसे कुछ खरीदने को कहा। तब अपने उसकी बातों पर ध्यान ही नहीं दिया। अब बच्चा बार बार उस वस्तु को लेने की जिद करने लगता है। यहां प्रायः लोगों की प्रतिक्रिया दो प्रकार की होती है....या तो आप उसे साफ साफ मना कर देते हैं या उसे फुसलाने लगते हैं-’आगे और भी अच्छी-अच्छी चीजें मिलती है वहां लेगे।आपका बच्चा बाल तर्क शक्ति के आधार पर आपकी मंशा को ताड़कर पांव पटक पटककर रोने-चिलाने लगता है। कभी कभी वह जमीन पर लोटने लगता है। इस समय बहुत संभव है आप उसे एक-दो चांटा लगा दें, पर बच्चे को हार मानता देखकर आप उसे वह वस्तु खरीद कर दे देते हैं, जिसका वह इतने समय से जिद किया बैठा था।

        यहां बच्चे के दिमाग में यह बात घर कर जाती है कि पांव पटकने या रोने से मनोवांछित चीजें प्राप्त की जा सकती है। ऐसे बच्चे अपनी हर बात मनवाने के लिये जिद करने लगता हैं। आप प्रश्न कर सकते हंै कि तब मुझे क्या करना चाहिये था ? आपको चाहिये था कि जब आपका बच्चा आपसे पहली बार उस वस्तु को लेने की इच्छा जाहिर कर रहा था तब आप बच्चे की इच्छा का आपकी सामस्थZ वस्तु की उपयोगिता के आधार पर मूल्यांकन करते धैर्य पूर्व बच्चे का ध्यान दूसरी ओर बंटा लेते। कुछ ही देर में आपका बच्चा उस वस्तु को भूल जाता। मनहरण भी यही करता है। आज उनके बच्चे ऐसा करने से चीजों की उपयोगिता को समझने लगे हैं। यहां यह उल्लेख करना समीचीन प्रतीत होता हैं कि बच्चे की हर मांग को भावुकता में पूरा करना उचित नही है, जैसा कि भारती अपने इकलौते सोनू की हर मांग को पूरा कर देती है। ऐसा करने से बच्चों मन में मनमानी करने की आदत पड़ जाती है। इकलौते बच्चों मे यह बात अक्सर देखने में आती है। बाद में यही आदत उनके लिये एक समस्या बन जाती है। बालहठ का निदान सदैव धैर्य पूर्वक मानसिक स्थिति को संतुलित रखकर करना चाहिये। तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि आप बच्चों से झूठे वायदे करें...?
       
छोटे बच्चों के बाल मन मंे सच और झूठ का उतना महत्व नहीं होता जितना कि हमें बच्चों झूठ बोलते देख कर देना चाहिये। याद रखिये एक ही काम को बार-बार करने से आदत बन जाती है। कुछ समय बाद आदत स्वभाव में बदल जाती हैं और फिर उससे चरित्र प्रभावित होने लगता है। बच्चों में झूठ बोलने की आदत प्रायः 4 से 9-10 वर्ष तक होती है। बच्चों के झूठ बोलने के मूल में सदैव भय या असुरक्षा की भावना होती है। बच्चों के हाव भाव से आसानी से जाना जा सकता है कि बच्चा झूठ बोल रहा है या सच। जब आपको लगे कि बच्चा झूठ बोल रहा है तो टालिये मत, गुस्सा भी मत कीजिये (जैसा की अक्सर मां-बाप करते हैं) बल्कि धैर्य के साथ सच्चाई का पता लगाइये और बच्चे को एहसास कराइये कि सच बोलने मे नुकसान नहीं होता। गलती सबसे होती है मगर अच्छी बात तो तब है जब अपनी गलती को महसूस करके उसे सुधारने का प्रयास करें। उसमे नैतिक गुणों साहस का विकास कीजिये। उसे बताइये कि झूठ बोलने वाला बच्चा स्वयं अपने मित्रों का विश्वास और सहानुभूति खो देता है। तब आप देखेंगे कि आपके बच्चे में आशातीत परिवर्तन हो रहा है। एक सावधानी अवश्य रखें कि स्वयं बच्चों के सामने कभी झूठ बोलें और कभी अनजाने में कोई गलती हो जाये, कोई वायदे टूट जाये तो बच्चों से माफी अवश्य मांगे।

        बच्चों को डरपोक बनाने में घर वालों का ही मुख्य हाथ होता है। अक्सर बच्चों को डराने के लिए भूत-प्रेत, बिल्ली, छिपकिली या किसी काल्पनिक हौवा का इस्तेमाल किया जाता है। बाल मस्तिष्क में ये सारी बातंे घर कर जाती है और फिर बच्चे हर वक्त एक अज्ञात भय की कल्पना करने लगते हैं। ऐसे बच्चे पशु-पक्षी को देखकर रोते हैं, अंधेरे में नही जाना चाहते। अतः बच्चों को व्यर्थ में डरपोक बनाये। इससे बच्चों के आत्मनिर्भर बनने में रूकावट आती है। बल्कि बच्चों का ध्यान ऐसी बातों से हटाकर अच्छी बातों की ओर आकर्षित करना चाहिये। अन्यथा आपका बच्चा कंुठित हो जायेगा और बड़ा होकर आपराधिक प्रवृत्ति की ओर बढ़ने लगेगा।

        घर में दिन भर उधम मचाता बच्चा नये लोगांे को देखकर गुमसुम हो जाता है। दूसरों को देखकर गुमसुम हो जाना, डरना, रोने लगना, मुंह छुपाना आदि बच्चों की भावनात्मक समस्यायें हंै। आप अगर लम्बे समय तक ऐसा महसूस करें तो आपको शीघ्र ध्यान देना चाहिये। अन्यथा बच्चों में लज्जा, भय हीनता की भावना घर कर जायेगी। ऐसे बच्चों में आत्मविश्वास जगाना जरूरी है। निर्धन बच्चों में हीनता की भावना ज्यादा देखने को मिलती है। वे दूसरों की वस्तुओं को हाथ लगाने से भी घबराते हंै। अनेक माता-पिता अपने बच्चों के सामने अन्य बच्चों की तारीफ करके इनकी तुलना में अपने बच्चों को अयोग्य ठहराते हंै। इससे बच्चे हतोत्साहित होते हैं। आप बच्चों की सौ असफलताओं में छुपी एक सफलता को पहचानिये और बच्चों को उसका एहसास कराइये। इससे बच्चा उत्साहित होगा। बच्चों में आत्म विश्वास जगाइये ताकि वे अन्य लोगों के सामने गौरव पूर्ण ढंग से अपने को प्रस्तुत कर सकंे।

        हर बच्चा अपने स्वभाव के अनुरूप अपना महत्व चाहते हंै, जो संभव नही है। अतः वे अनेकों बार अपने हर बात में नकारात्मक रवैया अपनाने लगते हैं। इस पर अधिकांश मां-बाप की प्रतिक्रिया होती है कि बड़ा जिद्दी हो गया है.... बड़ा बदमाश है। जिसे करने को कहो, उसे ही करता है, लात के देवता बात से नही मानते.... आदि। मेरी सलाह माने तो उन्हें शांत और अलग रहने दे। उस पर क्रोध करें। यह सब उम्र के साथ ठीक हो जाता है।

        आज के व्यस्त समाज में मां-बाप के पास इतना वक्त ही नहीं होता कि अपने बच्चे के साथ कुछ समय गुजार सकें। ऐसे मां-बाप को मेरी सलाह है कि बच्चों को उसके हिस्से का भरपूर प्यार दें। आपके प्यार, सहयोग पथ प्रदर्शन से बच्चों में जो सुरक्षा का भावना पैदा होती है, वह हर वक्त उन्हें प्रोत्साहित करता है, इनमें आत्मविश्वास जगाती है।

        आपके प्यार का मुकाबला कोई आया, नर्स या नौकर की देखरेख से नही हो सकता। आपकी उपेक्षा, उदासीनता से बच्चों में अलगाव की भावना पैदा होती है, उसकी प्रवृत्ति आपके प्रति विद्रोही हो जाती है और आगे चलकर यही बच्चा अवज्ञाकारी, असहयोगी, पथ भ्रष्ट दायित्व से विमुख हो जाता है। अतः सावधान हो जाइये। आप बच्चों के बिगड़ने के लिये जिम्मेदार हंै। अतः अपनी जिम्मेदारी से भागिये मत, समझदारी से काम ले।



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