भावनाओं से भरा बच्चों का संसार


भावनाओं का बच्चों के जीवन से प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है। बाल मनोवैज्ञानिकों ने इस विषय पर प्रर्याप्त शोध कार्य करके एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार बच्चों के सामाजिक एवं भावनात्मक विकास का व्यापक प्रभाव उनके शारीरिक मानसिक विकास पर पड़ता है। साधरणतया भावनात्मक रूप से सुरक्षित बच्चा स्वस्थ, प्रसन्न और समाज के प्रति कर्तव्यनिष्ठ होता है। माता-पिता का बच्चों की भावनाओं को सुरक्षित रूप से संगठित करने में प्रयत्नशील होना स्भाविक है एवं यह लक्ष्य पूर्ति निम्नलिखित तथ्यों को ध्यान मे ंरखकर पूरी की जा सकती है।

            सबसे पहले बच्चों के अंतरमन में यह निश्ंिचतता होनी चाहिए कि माता-पिता उसे भरपूर प्यार करते हंै। उनके मन में इस भावना का उदय होना चाहिए कि वह घर, परिवार और समाज का अभिन्न अंग है। माता-पिता को बच्चों के स्वतंत्र विचार, कल्पना एवं परामर्श का सम्मान करना चाहिए। बच्चों को स्वच्छन्द वातावरण में अन्य बच्चों के साथ खेलने दें, ताकि वह दूसरों के अनुकूल आचरण बना सकें। बच्चों का अनुशासित होना आवश्यक है किन्तु इसे क्रियान्वित करने के लिये माता-पिता को मैत्रीपूर्ण व्यवहार करना चाहिए। यथा समय बच्चों की प्रशंसा करके उनहंे उत्साहित करना चाहिए। बच्चों को माता-पिता की स्नेहपूर्ण छत्रछाया में उचित मार्गदर्शन मिलना नितांत जरूरी है। बच्चों में यह भावना होनी चाहिए कि माता-पिता उस पर विश्वास करते हैं और चाहते हंै कि वह जीवन में उन्नति करे। इसके लिए बच्चों को कार्य एवं वचन की पूर्ण स्वतंत्रता मिलनी चाहिए; साथ ही बच्चों के मन में यह दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि मस्ती करने पर भी माता-पिता उसे प्यार करते हैं और यदि वे सजा देते हैं तो उसके हित में है........?

            प्रसिद्ध बाल मनोवैज्ञानिक वाटसन ने अपनी पुस्तक दी चाइल्ड हिस पेरेन्ट एण्ड दी फिजीशियन में नवजात शिशु की भावनओं की प्रतिक्रियाओं का उचित विश्लेषण करते हुए कहा कि बच्चों में भय, क्रोध एवं प्रेम की मूल भावनाएं वयस्क हाने पर उसका आचरण निर्धारित करती है, अतः इन भावनाओं को उचित एवं स्वतंत्र रूप से विकसित होने का पूर्ण अवसर मिलना चाहिए। जन्म के बाद बच्चा का अपने माता-पिता के ऊपर पूरा विश्वास होता है। उस अवस्था में बच्चे अपनी भावनाओं पर नियंत्रण नही कर पाते। उन्हंे शुरू-शुरू में अच्छे बुरे का ज्ञान नहीं होता। तीन माह बाद बच्चा विशेषकर अपनी मां को देखकर मुस्कुराने लगता है, छः माह की आयु में बच्चा रोकर भय, गुस्सा अथवा खीज प्रदर्शित करने लगता है। एक वर्ष की आयु में बच्चा अनजान नए चेहरों को देखकर भय, गुस्सा अथवा खीज प्रदर्शित करने लगता है। एक वर्ष की आयु में बच्चा अनजान, नए चेहरों को देखकर भयभीत हो उठता है; याने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। एक से डेढ़ वर्ष का बच्चा दूसरे बच्चों के प्रति द्वेष एवं उचित-अनुचित की भावना की भी इसी अवस्था में जन्म लेती है। दो वर्ष का बच्चा नकरात्मक दृष्टिकोण का होता है अर्थात् वह नहीं नहीं करता है। वह स्वतंत्र रूप से जीवन व्यतीत करना चाहता है।

            बच्चों के भावनात्मक विकास में सबसे मुख्य बात है- बच्चों के मन में सुरक्षा की भावना का उदय होना चाहिए। अतः माता-पिता की इस भावना के प्रति पूर्ण सजग होना चाहिए। बच्चों में सुरक्षा की भावना का पूर्ण जागरण निम्नलिखित बातों को माध्यम से होता है-
1. बच्चा जब भूखा हो तो उसे स्नेहपूर्वक दूध पिलाना चाहिए अथवा भोजन देना चाहिए।                                            अथवा भोजन देना चाहिए।
2. बच्चे को यदि किसी प्रकार का कष्ट हो तो उसे तत्काल दूर करके बच्चे को आराम पहुंचाना चाहिए ताकि उसमें असुरक्षा की भावना पनप सके।
3. उनकी भावनाओं का यथोचित आदर करते हुए उनकी समस्याओं को धैर्यपूर्वक सुने तथा दूर करने का प्रयास करें।
4. बच्चों को किसी बात में डांटने मारने के बजाय समझायें।
5. बच्चों की कार्य प्रणाली का दूसरे बच्चों से तुलना करें, इससे उनमें हीन भावना पैदा होती है।

            यदि बच्चों के मन में सुरक्षा की भावना का यथोचित विकास हेाता है तो उसका भविष्य fनःसंदेह सुखमय होगी। भविष्य में जीवन की विषय परिस्थितियों एवं संकट से संघर्ष करने की प्रेरणा का आधार यही सुरक्षा की भावना है जो बच्चे इस भावना से किन्ही कारणवश वंचित हो जाता है। वह बड़े होने पर साधारणतया निराशावादी एवं अविश्वासी प्रवत्ति का हो जाता है अथवा मानसिक व्यधियों का शिकार हो जाता है। अगर संक्षेप में इसे कहना चाहेंगे तो संतंुष्ट और आशावादी माता-पिता का बच्चा तृप्त, प्रसन्न एवं कर्तव्य निष्ठ बनने की दिशा में अग्रसर होगा जो उसके सुखमय भविष्य के लिए आवश्यक है।

            तीन से सात वर्ष की आयु के बच्चे अपनी शारीरिक मानसिक सामाजिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए पूर्णतया अपने माता-पिता पर आश्रित रहे हंै। जब इस अवस्था में बच्चे स्कूल जाना प्रारंभ करते हैं तब वे इस भावनाओं को शिक्षक के प्रति स्थानान्तरित कर लेते हंै। यदि बच्चे को इस बीच माता-पिता द्वारा प्रेम सुरक्षा का आभास नहीं होने पर वह जिद्दी और चिड़चिडे़ प्रवृत्ति का बन जाता है अर्थात् उसके बाल्यकाल की मूल भावनाओं की वृ़िद्ध नहीं हो पाती। कई बार मैंने बच्चों से माता-पिता को यह कहते सुना है कि बचपना क्यों करते हो? आदि। इसमें बच्चों का क्या दोष ? आपने ही बच्चे के बचपने को विकसित होने दिया है अतः इसके लिए आप स्वयं उत्तरदायी हैं।  माता-पिता को अपने ज्ञान एवं अनुभव द्वारा उचित शिक्षा देना चाहिये; विशेष रूप से बच्चों को बहुत कड़े अनुशासन अथवा तानाशाही के माहौल में रखे अन्यथा वह मानसिक रूप से कभी स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं बन पाएगा। दूसरी मुख्य बात यह है कि इस आयु में बच्चे को गलत काम करने पर कठिन सजा दें, ही उनकी हंसी उड़ाये। उचित यही होगा कि आप बच्चे को सहानुभूति पूर्वक समझायें कि उसने जो अनुचित कार्य किया है वह अवांछनीय है और उससे दूसरों को कष्ट पहुंचता है। इस प्रकार आरंभ से ही बच्चों के मन में दूसरे व्यक्ति के प्रति अपनत्व एवं स्नेह की भावना का अंकुर प्रस्फुटित होगा।  ऐसे समय में माता-पिता को स्वयं के आचरण पर भी नियंत्रण रखना चाहिए क्योंकि बच्चा निरन्तर आपका अनुसारण करता है। बच्चे यदि आपकी शिक्षा सुन सकता है तो आपके व्यवहार एवं चरित्र को भी देख सकता है इसके लिए आप अपने वार्तालापों में शालीनता बरतें।

            इस आयु के बच्चे भाषा के माध्यम से अपनी आवश्यकता, उत्सुकता एवं जिज्ञासा का यथोचित प्रदर्शन करते हैैं। माता-पिता को चाहिए कि साधारण भाषा में बच्चे द्वारा पूछे गये प्रत्येक प्रश्न का तत्काल सही उत्तर दें, विश्ेषकर यौन सम्बन्धी प्रश्नों को सरल भाषा में उचित उत्तर देना आवश्यक है। यौन सम्बन्धी प्रश्नों को हल करने का एक मात्र यही उद्देश्य होना चाहिए कि बच्चे सामाजिक बंधनों का उल्लंघन करें एवं विवाह के बाद यौन सम्बन्धों में प्रति उचित दृष्टिकोण द्वारा अपना उत्तरदायित्व वहन कर सकें।

            लगभग चार से पांच वर्ष की आयु में बच्चे स्कूल जाने लगते हंै। यह बच्चों के जीवन का प्रथम महत्वपूर्ण सामाजिक परिवर्तन है। समाज में परस्पर मेल पूर्वक रहने की प्रवृत्ति का आरंभ स्कूल के माध्यम से होता है। यदि बच्चा अन्य के मध्य सौहार्द्रपूर्वक रहने का सरलतापूर्वक अभ्यस्त हो जाता है तो निसंदेह भविष्य में वह एक आदर्श एवं संवेदनशील नागरिक बन सकेगा। यदि किसी कारणवश बच्चे अपने सहपाठियों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध कायम रखने में असमर्थ होता है अथवा नए वातावरण में स्वयं की भावनाओं पर नियंत्रण नहीं रख पा रहा है तो बच्चे को स्नेहपूर्वक समझाकर इस नए वातावरण के अनुकूल आचरण बनाने हेतु प्रेरित करें। यदि बच्चे ऐसा करने में असफल हो जाते हंै तो भविष्य में उसके अंतरमन में असंतोष, कुंठा और हीनता की भावनाएं दृढ़ता से जड़ पकड़ लेगी।

            स्कूल जाने के बाद एक-दो वर्ष बाद बच्चे भावनात्मक रूप से अपने माता-पिता पर कम आश्रित रहते हैं। इसका मुख्य कारण है कि इस आयु के बच्चे उन्हें प्रिय लगते हैं साथ ही वह स्वतंत्र रहना चाहते हैं। यथार्थता के प्रति बच्चों की अभिरूचि तब प्रकट होती है जब वह माता-पिता से सही-गलत तथ्यों पर विचार-विमर्श करने लगता है एवं माता-पिता की आज्ञा का अक्षरशः पालन करने के पूर्व fचंतन करता है। इस अवधि में यदि बच्चे को घर में पूर्ण वात्सल्य प्राप्त होता है, तो वह भविष्य में उसे अपने सहपाठियों में बांट देता है। यदि वह स्वतः माता-पिता के स्नेह से वंचित रहा है तो उसके लिये दूसरों को प्रेम करना असंभव हो जाता है। इस अवस्था में बच्चों की जिज्ञासा चरम सीमा पर रहती है। उनमें कार्यो को सुचारूपूर्वक करने की क्षमता का विकास भी इसी आयु में होता है। इससे उन्हे आत्मसंतोष एवं आत्मविश्वास प्राप्त होता है।

            बच्चों में सर्वप्रथम स्वतंत्र रहने की भावनाओं का विकास किशोर अवस्था में होती है जिसके वशीभूत होकर वह अपनी इच्छाएं स्वतंत्र रूप से प्रकट करते हंै। किशोर वय बच्चे अपनी आकांक्षाओं को येन केन प्रकारेण माता-पिता से वाद-विवाद करके पूर्ण करता हैै। कई बार वह किन्हीं विष्यों पर माता-पिता का विरोध भी कर बैठता है। इन सब बातों को लिखने का उद्देश्य यह है कि माता-पिता अपने बच्चों के इस मानसिक तनावों के प्रति साहानुभूति पूर्ण दृष्टिकोण अपनायें एवं बच्चे के प्रति अनुचित रोष व्यक्त करें।  बच्चें अपनी भावनाओं पर कोई रोक नहीं लगा सकता क्योंकि वह अन्तद्वZद्व एक स्वाभाविक क्रिया है। माता पिता को अपनी भावनाओं पर प्रतिबंध लगाना एवं समझ-बूझ से स्नेह पूर्वक नियंत्रण में रखना आवश्यक है। अन्यथा ये अन्तद्वZन्द विकराल रूप ले लेता है जो जीवन पर्यन्त मन में कलुषता घोलते रहता है। कहां भी गया है:-

                                                लालयेत पंचवर्षाणि दशावर्षाणि ताड़येत।
                                                प्राप्ते तुपोडर्शे वर्शे पुत्र मित्र समाचरैत।।

            अर्थात् माता-पिता को पांच वर्ष  की आयु तक बच्चों से प्रेम रखना चाहिए। दस वर्ष की आयु के बाद उसे ताड़ना दे तथा सोलह वर्ष की आयु का होने पर माता-पिता को बच्चे से मित्रवत व्यवहार करना चाहिए इससे वह अपनी भावनाओं का आदान-प्रदान कर सके एवं सहायता मांग सके। बच्चे को यह आश्वासन प्राप्त  होना चाहिए कि उसे माता-पिता उसके अवगुणों के बावजूद भी उससे असीम स्नेह रखते हंैै। इसके लिए आप बच्चे की भोजन व्यवस्था एवं वस्त्रों पर ध्यान रखे। आम तौर पर देखा गया है कि इस अवस्था में बच्चे क्रोधित होने पर खाना नहीं खाते। वास्तव में उनकी नाराजगी भोजन से नहीं बल्कि आप से है। अतः आप उन्हें मनाकर भोजन कराएं। इस प्रकार बच्चों में भावनात्मक विकास होता है जिसके लिए हमें धैर्य और विश्वास के साथ बच्चों से व्यवहार करना चाहिए तभी हम कामयाब हो सकंेगे।



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