मां-बाप के झगड़े और बालमन



मैंने सोचा आज रविवार है, चलो चाचा जी के घर चला जाये और यह सोचकर कदम खुद--खुद चाचा जी के घर की ओर बढ़ने लगे। घर पहुंचा तो देखा बच्चे सहमे-सहमे और दुबके हुए हंै। सारा घर शांत था जैसे कोई तूफान आकर चला गया हो ? चाचा और चाची नजर नही रहे थे। सो मैने ब्रजेश से पूछा- ‘सब कहां चले गये हैं ?’ ‘...सब यही हंै, उसका सहमा सा उत्तर था। मेरा मतलब चाचा और चाची दिखाई नही दे रहे हैं..कहीं बाहर गये हैं क्या ?’ मैंने अपनी बात को दुहराया। ब्रजेश बोला नहीं, यहीं हंै, कमरे में सो रहे हैं।मै समझ नही पाया। आज रविवार का दिन अर्थात् फुरसत के क्षण, और घुमने का वक्त मगर दोनांे सो रहे हैं, मन शंका से भर उठा.. मंैने कहा-’बात क्या है, कही आपस में झगड़ा तो नही हुआ ?’

            ‘...हां हुआ है’, ब्रजेश बोला। बात मामूली सी थी। पापा आज अपने एक मित्र की शादी की पार्टी में चलने को बोले और मम्मी पिक्चर जाने को बोली। बस, दोनांे अपनी जिद में अड़ेे रहे और बात बढ़ती गई। मम्मी दादा-दादी को बुरा भला कहने लगी, तब पापा भी खूब जली-कटी बातंे कहने लगे। मम्मी बोली- ‘काश, तुमसे मेरी शादी नहीं हुई होती ?’ इस पर पापा भी चिल्लाने लगे-’मेरी ही किस्मत फूटी थी कि तुम जैसी औरत से पाला पड़ाऔर फिर पापा गुस्से में कमरे में चले गये। कुछ समय बाद मम्मी भी कमरे में जाकर रोने लगी। तब से पापा मम्मी कमरे में ही हंैै।

            मैं उल्टे पांव लौट आया। ब्रजेश की बातों ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। कई घटनाएं परत-दर-परत मन-मस्तिष्क में आने लगी। मेरे पड़ोस में भी आये दिन पति-पत्नी में लड़ाई होती है। बात गाली गलौज से शुरू होती है और बर्तन फेंकने बच्चों की मार के साथ समाप्त होती है। यह समस्या प्रायः सभी घरों और परिवारों में देखने-सुनने को मिलती है। पति-पत्नी या परिवार के दूसरे सदस्य जब लड़ने लगते हंै, तब उन्हंे इस बात का ख्याल नहीं रहता कि उसके अलग-बगल में कौन हंै ? बच्चों के सामने लड़ने के दुष्परिणाम का उन्हें अंदाजा नही होता। उस समय उन्हें अपनी लड़ाई में विजय प्राप्त करने की पड़ी होती है जिसकी परिणति अश्लीलता में होती है। बगल में खड़े खिलते सुमन उनके इस व्यवहार से क्षुब्ध हो उठते हैं। स्वभाव की दृष्टि से बच्चे झगड़ों को सामान्य घटना के रूप में लेते हंै। किन्तु कुछ बच्चे इस झगडे में मजा लेते हुऐ कहते हैं कि पिक्चर में तो मम्मी-पापा में बडे जोर का झगड़ा होता है।छोटे-मोटे टकराव और बड़े झगड़ों से इसके आदी हो जाते हैं। सबसे विचारणीय बात तो यह है कि माता-पिता तो लड़-झगडकर सुलह कर लेते हैं लेकिन बच्चे ? वे भय, आशंका और अनिश्चितता के भंवर में फंसकर रह जाते हैं। उनके मन में या तो अपराधी होने का दुख होता है या फिर वे दब्बू प्रवृत्ति के हो जाते हैं। ऐसे बच्चे सामाजिक जीवन से कटे-कटे से रहते हैं और निरर्थक fजंदगी जीने को मजबूर होते हैं।

झगडे प्रायः हर घर में होते हंै और कहते भी हंै कि जहां दो बरतन होंगे, खटकंेगे ही। मगर कई बार ये झगड़े उग्र रूप धारण कर लेते हैं और झगड़ने वाले यह भूल बैठते हंै कि वे पति-पत्नि ही नहीं, माता-पिता भी हंै और उनके जोर-जोर से चीखने-चिल्लाने और परस्पर दोषारोपण का उनके बच्चों पर बहुत बुरा असर होता है।

            कुछ बच्चे रोज-रोज के झगड़ों से इसके आदी तो हो जाते हैं। पर विचारणीय बात यह है कि माता-पिता तो लड़-झगड़ कर सुलह कर लेते हंै। लेकिन बच्चे भय, आशंका और अनिश्चितता के भंवर में फंस कर रह जाते हैं।

            प्रसिद्ध मनोचिकित्सक डा. विलियम . होमन ने अपनी पुस्तक चाइल्ड सेन्स में लिखा है कि ‘‘माता पिता के एक या आधा दर्जन झगड़े भी बच्चे के उपर तब तक कोई विपरीत असर नहीं डालते जब तक कि बच्चे को अपने माता-पिता की घनिष्ठता का स्पष्ट विश्वास हो और यह समझता हो कि यह झगड़े तो सतही है। लेकिन इसी तरह के झगड़े जब बार-बार दुहराये जाते हैं तो बच्चों का यह विश्वास टूट जाता है। इन झगड़ों की लगातार आवृत्ति उसे संशय में डाल देती है कि कहीं उसे वह प्यार मिलना बंद हो जाये जिसके स्त्रोत उनके माता-पिता हैं।

            डाक्टर तो बहुत पहले से यह मानते आये हंै कि बच्चे के मन को ठेस पहुंचाने वाला संशय कभी-कभी उसके शारीरिक रूपों में प्रकट होता है-जैसे दिल की धड़कन बढ़ जाना, पेट में दर्द होना, बेहोशी आना आदि। एक प्रचलित विचारधारा तो यह भी है कि अधिक गंभीर किस्म की स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं मूल रूप में मनोवैज्ञानिक आधार लिये हुये होती हैं। सिडनी की बाल और परिवार मनोवैज्ञानिक डा. एनी बैfनंग कहती है- बच्चे के दृष्टिकोण से देखें तो वह झगड़ा सबसे घातक होता है जिसमें बच्चे को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से यह समझ में आये कि दोषी वह स्वयं है। अक्सर ऐसा तब होता है कि माता-पिता में से कोई एक कठोर और दूसरा उदार प्रवृत्ति का होता है। बच्चा अंतद्वZन्द में फंस जाता है और उसकी समझ में नहीं आता कि किसको समर्थन करें।

            वैज्ञानिक विश्लेषण करने से पता चलता है कि हमारे शरीर में एक अत्यंत संवेदनशील नर्वस स्टिम होता हैं किसी भावी विपत्ति के समय यही सिस्टम हमारे रक्त के संचार में एड्रीनल नामक गं्रथि से निकली एड्रीनलीन को प्रभावित करके हमारे शरीर को सचेत करता है जिसके कारण हमारे दिल की धड़कन बड़ जाती है और पाचन क्रिया प्रभावित होती है। दुर्भाग्य से जो शारीरिक प्रतिक्रियाएं वास्तविक अपात स्थिति में जीवनदायिनी बन सकती है, वहीं हमें एक स्थायी भावनात्मक तनाव की ओर भी ले जा सकती है।

            मेरी सोच में एक वाकया खुद--खुद जुड़ गया। मेरे पड़ोस में रह रहे एक दम्पत्ति की एक बारह वर्षीया कन्या सुजाता ने बताया मम्मी पापा हमेशा छोटी-छोटी बातों को लेकर झगड़ते हंै, चीजें फेंकते हैं, अच्छे-अच्छे, खाने-पीने की चीजें भी.... ओह ! सब कुछ कितना खराब लगता है। जिस घर में माता पिता हमेशा लड़ते झगड़ते हैं, वहां बच्चे भी इन्हीं आदतों को पकड़ लेते हैं। माता पिता पहले भी लड़ते थे लेकिन बच्चे के सामने नही। उन्हें इस बात का विशेष ख्याल रहता था।

            आज के कुछ आधुनिक अभिभावकों का कहना है कि जो परिवार लड़ता नहीं है, वह अस्वस्थ प्रकृति का है। यदि मां सदैव निरीह, शांत और चुप रहने की प्रवृत्ति को अपनाये रहती है तो वह स्थायी हताशा से ग्रस्त हो जाती है। अतः हमारे परिवार में हमने अपने बच्चों को कह रखा है कि देखो जब कभी कुछ चीख पुकार सुनो तो इसका मतलब है कि हम अपने मन के गुबार को बाहर निकाल रहे हंै। ऐसे समय में तुम लोग कहीं एकांत में चले जाया करो। बच्चों को पारिवारिक कलह से बचाने के लिये यह आवश्यक है कि घर में झगड़ा हो। एक बोले तो दूसरा शांत रहे अथवा वहां से हट जाये। यह विचार भी झगड़े को अस्थायी रूप से दबा देता है। कि लड़ने वाला व्यक्ति शत्रु नही बल्कि इंसान है जिसमे मेरी ही तरह दुर्बलताओं का होना स्वाभाविक है। इस प्रकार यदि परिवार के सदस्य थोड़ी सी सूझबूझ से काम लेकर मौन रखकर अपने ऊपर नियंत्रण रखें तो घर में झगड़े की संभावना कम हो जाती है। घर का कार्य प्रफुल्लता, इमानदारी और धैर्य रखकर करने से गृह कलह सदैव के लिए समाप्त हो सकती है। जहां क्षमा है, वहां कोई झगड़ा पनप नहीं सकता। जिन समस्याओं पर विचार-विमर्श करने से झगड़ने की संभावना हो तो उस समय बच्चों को वहां से अलग कर देना चाहिए। घर के बजट पर उक्सर पति-पत्नी में तकरार होती है। अतः ऐसे समय में ख्याल रखें कि वहां पर बच्चे रहें। घर में झगड़े कम होंगे तो बच्चे अच्छी बातें सीखेंगे, अच्छा व्यवहार करेंगे तो अपनी शरीरिक मानसिक शक्तियों का अधिक से अधिक विकास सदुपयोग कर सकेंगे।

            जिस घर में हर समय लड़ाई झगड़ा होता है वहां तनाव भय छाया रहता है। बच्चे घर में सहमे सहमे से रहते हैं। वे समझते हंै कि घर में गाली खाने और पिटने से तो बेहतर यहीं है कि वे बाहर ही रहे। इससे उनमे असुरक्षा की भावना जाती है। जिससे उसका मन कुंठित हो जाता है और तब बात-बात में चिड़चिडाना, लड़ना, गाली गलौज करना उसकी प्रवृत्ति बन जाती है। आगे चलकर गलत संगति में पड़ने की पूरी संभावना रहती है। अतः बच्चों के बालमन में अच्छी बातें गढ़ने का प्रयास करें। तभी हमारी नई पीढ़ी अच्छी बातें सीखेगी और हमारा समाज उत्तरोत्तर विकास करेगा।



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